भीमराव ऑबेडकर ने पंडित नेहरू की कैबिनेट से 31 अक्तूबर,1951 को इस्तीफा दे दिया था और उसके अगले ही दिन वे 26 अलीपुर रोड के बंगले में आ गए थे। आप जब राजधानी में अन्तरराष्ट्रीय बस अड्डे के रास्ते सिविल लाइंस मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ते हैं तो आपको सड़क के दाहिनी तरफ एक बंगले के बाहर बाबा साहेब ऑबेडकर स्मारक का बोर्ड दिखता है-यह बाबासाहेब के नाम पर चलने वाला कोई सामान्य दफ्तर नहीं है। इसका उनकी जिंदगी से बेहद अहम संबंध रहा है। अपनी जिंदगी के अंतिम पांच बरस बाबा साहेब ने यहां पर ही अपनी पत्नी सविता जी के साथ गुजारे थे। उन्होंने पंडित नेहरू की कैबिनेट से 31 अक्तूबर,1951 को इस्तीफा दे दिया था और अगले ही दिन वे इस बंगले में आ गए थे। यानी वे एक दिन भी सरकारी बंगले में मंत्री पद को छोड़ने के बाद नहीं रहे। जाहिर है, अगर चाहें तो आजकल के तमाम नेता उनसे प्रेरणा ले सकते हैं जो सरकारी बंगलों से निकलने का नाम ही नहीं लेते मंत्री या संसद सदस्य न रहने के बावजूद। बाबा साहेब 26 अलीपुर रोड में आने से पहले 22 पृथ्वीराज रोड के बंगले में रहते थे।

सांकेतिक किराया देते थे

26 अलीपुर रोड पर आने के बाद वे 6 दिसंबर,1956 तक यानी अपनी मृत्यु तक यहां पर ही रहे। दरअसल उन्हें नाम मात्र के किराये पर इस बंगले में रहने का आग्रह किया था राजस्थान के सिरोही के राजा ने। उनके आग्रह पर वे इधर आ गए। बाबा साहेब पर लगातार अध्ययन कर रहे सुधीर हिलसायन ने बताया कि बाबा साहेब ने 26 अलीपुर रोड पर रहते हुए ही ‘बुद्घा एंड हिज धम्मा’ नाम से अपनी बेहद कालजयी पुस्तक लिखी।

अध्ययन में गुजरता था वक्त

बाबा साहेब का उस दौर में ज्यादातर वक्त अध्ययन और लेखन कायोंर् में ही गुजरता था। उनके निजी सहायक नानक चन्द्र रत्तू आमतौर पर उनके पास रहते थे। आप जैसे ही 26 अलीपुर रोड के अंदर पहुंचते हैं तो आपको कहीं न कहीं लगता है कि बाबा साहेब यहां पर ही कहीं होंगे। वे कभी भी कहीं से आपके सामने खड़े हो जाएंगे। बेशक, जिस

जगह पर बाबा साहेब जैसी शिखर हस्ती ने अपने जीवन के कुछ बरस बिताए वह जगह अपने आप में खास तो है। अलीपुर रोड के इस बंगले में बहुत से कमरे हैं। बंगले के आगे एक सुंदर सा बगीचा भी है। कहते हैं कि उनके घर के दरवाजे सबके लिए हमेशा खुले रहते थे। कोई भी उनसे कभी मिलने के लिए आ सकता था। वे सबको पर्याप्त वक्त देते थे। बाबा साहेब के लेखन का लंबे समय से अध्ययन कर रहे सुधीर हिलसायन ने बताया कि 26 अलीपुर रोड में प्रवास के दौरान उनसे तमाम चिंतक, छात्र, पत्रकार, अध्यापक, वंचित कार्यकर्त्ता वगैरह उनकी पुस्तकों पर बात करने के लिए भी आते थे जिनमें ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। इसके अलावा उनकी व्हाट काँग्रेस एंड गांधी है टू टू द अनटचेबल्स, और ‘हू वर द शूद्राज?'(शूद्र कौन थे?) पर भी लंबी बैठकें होती थीं। वे बीच-बीच में देश के विभिन्न भागों में लोगों से मिलने-जुलने के लिए जाते थे।

बाबा साहेब की मृत्यु के बाद सविता जी करीब 3 वर्ष तक इसी बंगले में रहीं। उसके बाद सिरोही के राजा ने बंगले को किसी मदन लाल जैन नाम के स्थानीय व्यापारी को बेच दिया। जैन ने आगे चलकर बंगले को स्टील व्यवसायी जिंदल परिवार को बेच दिया। फिर जिंदल परिवार इसमें रहने लगा। उसने बंगले में कुछ बदलाव भी किए। दरअसल अलीपुर रोड को आप राजधानी का ‘पॉश’ इलाका मान सकते हैं। इसे अंग्रेजों के दौर में ही विकसित कर दिया गया था। इससे सटे हैं फ्लैग स्टॉफ रोड,राजपुर रोड,माल रोड,कमला नगर वगैरह। इसी क्षेत्र में दिल्ली विधानसभा और दिल्ली विश्वविद्यालय भी हैं। सुबह से शाम तक यह सारा क्षेत्र गुलजार रहता है। जगह-जगह पर बड़े-बड़े बगीचे हैं। कुल मिलाकर बेहद शानदार इलाके में है यह क्षेत्र।
मांग आंबेडकरवादियों की

पर सन 2000 के आसपास देशभर के ऑबेडकवादी मांग करने लगे कि 26 अलीपुर रोड के बंगले को बाबा साहेब के स्थायी स्मारक के रूप में विकसित किया जाए। मांग ने जोर पकड़ा। तब सरकार भी हरकत में आई। उसने जिंदल परिवार से बंगले को लिया। बदले में उसे बंगले के बराबर जमीन उसी क्षेत्र में दी।

 

देश को समर्पित

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2 दिसंबर,2003 को इस बंगले को देश को समर्पित किया बाबा साहेब के स्मारक के रूप में। हालांकि जानकार कहते हैं कि जिंदल परिवार ने पूरी कोशिश की थी कि उसे अपना

बंगला नहीं देना पड़े। 26 अलीपुर रोड खास जगह तो है। बंगले की हालत भी उम्दा है। 2003 से पहले तो बहुत ही कम लोगों को मालूम था कि इस बंगले का बाबा साहब से कितना करीबी संबंध रहा है। 26 अलीपुर रोड अब खास जगह हो गई है। ठीक हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि 26अलीपुर रोड को सिर्फ सांकेतिक रूप से बाबा साहेब का स्मारक बनाना काफी नहीं होगा। यहां पर उनके जीवन से जुड़ी अहम चीजों को स्थापित भी करना होगा। और बहरहाल जानकारों ने बताया कि डॉ़ आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर एकाध बार को छोड़कर दिल्ली वाले स्मारक में कभी नहीं आए।

विवेक शुक्ला

 

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