डॉ अंबेडकर और  ब्राह्मण

 

·          किशोर मकवाणा

डो. बाबासाहब अंबेडकर के संस्कार- विचार और जीवन उच्च कोटि के थे । उनके विचारों और व्यवहार में नफ़रत और दुर्व्यवहार का कोई स्थान नहीं था। बाबासाहब के जीवन में पढ़ाई से लेकर अनेक आंदोलनों में भी महत्वपूर्ण सहयोग देनेवाले  ब्राह्मण ही रहे हैं। इसीलिए उन्होंने बार-बार कहा है मैं बाह्मण विरोधी नहीं हूँ, मिथ्या ब्राम्‍हणवाद के अहंकार का विरोधी हूँ।’

डॉ बाबासाहब के कथित अनुयायियों के ब्राह्मण-विरोध की यह मानसिकता  बाबासाहब के विचारों से अलग है और डॉ बाबासाहब के जीवनदर्शन से उनका कोई सरोकार नहीं है, केवल ब्राह्मण एवं हिन्दू धर्म के बारे में गाली गलौज और अपशब्द बोलना यही उनका एकमात्र मकसद है। बाबासाहब ने सदैव मिथ्या ब्राह्मणत्व का विरोध किया, पर कभी भी ब्राह्मणों का तिरस्कार करने के प्रयत्न उनके द्वारा नहीं हुए । यह डॉ. बाबासाहब के जीवन की अनेक घटनाओं से भी स्पष्ट होता है ।

·        बाबासाहब का उपनाम ही देख लें। ‘अम्बेडकर’ का वास्तविक कुलनाम सकपाल था, पर रत्नागिरि जिले के आंबवडे ग्राम के नाम से उनके कुल ने आंबवडेकर उपनाम रख लिया । एक छोटे आत्मचरितात्मक बयान में बाबासाहब ने अपने संस्मरण बताये हैं । उसमें उन्होंने लिखा है कि उनके विद्यालय में अम्बेडकर नाम के एक ब्राह्मण शिक्षक थे । ये शिक्षक बाबासाहब को अपने साथ बैठाकर भोजन कराते थे । उन शिक्षक महोदय ने आंबवडे अर्थ अच्छा न होने के कारण इनका उपनाम बदल कर अम्बेडकर किया और वही विद्यालय के रजिस्टर में भी लिखा ।  आंबेडकर गुरुजी को ऐसा लगा कि आंबावडेकर कुलनाम बोलने में ठीक नहीं। अतः एक दिन आंबेडकर गुरुजी ने भीम से कहा कि वह सरल-सुलभ आंबेडकर नाम धारण करें । तुरन्त ही स्कूल के कागजात में उन्होंने यह नाम दर्ज कर लिया। आंबेडकर गुरुजी को अपना नाम अमर करने की ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई, वह उनका भाग्य ही कहना चाहिए। शिष्य के साथ-साथ गुरु भी अमर हो गए। आंबेडकर गुरुजी को अपने प्रिय शिष्य का बुढ़ापे में भी विस्मरण नहीं हुआ। आगे अस्पृश्यों के प्रतिनिधि के रूप में गोलमेज परिषद् के लिए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जब विलायत जाने के लिए निकले; तब शुभेच्छासूचक और अभिनंदनपरक एक पत्र उन्होंने अपने शिष्य को भेजा। वह पत्र एक अमूल्य धरोहर है;यह मानकर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने उसे सुरक्षित रखा था। आंबेडकर गुरुजी एक बार बम्बई में दामोदर सभागृह के पास स्थित आंबेडकर के कार्यालय में उनसे मिलने के लिए गये थे। तब महान् और ख्यातकीर्त उस शिष्य ने गद् गद् होकर उन्हें नम्रता से प्रणाम किया। इतना ही नहीं, उन्हें श्रीफल और पोशाक देकर उनका यथोचित सम्मान भी किया।

बाबासाहब हाई स्कूल की दूसरी कक्षा (अब कक्षा 6) में थे, तब पेंडसे नामक ब्राह्मण शिक्षक पढ़ाते थे । वे बाबासाहब से बहुत स्नेहपूर्ण व्यवहार करते थे । एक दिन वर्षा हो रही थी । बाबासाहब विद्यालय पहुँचे, तब तक पूरी तरह से तरबतर हो चुके थे । पेंडसे ने भीम को बड़े प्रेम से पूछा :‘बारिश में भीगकर तू आ गया, छाता क्यों नहीं लाया?’ यह पूछने पर भीम ने भोलेपन से उत्तर दिया कि, ‘छाता एक ही था और वह भी भाई लेकर गया।’ यह सुनकर पेंड़से ने अपने बच्चे के साथ भीम को अपने घर भेजा और स्नान के लिए गर्म पानी देकर उसे एक सूखी लंगोटी देने के लिए कहा।उनका भीम पर बहुत प्रेम था। शिक्षक महोदय ने अपने लड़के के साथ इन्हें अपने घर भेजा । वहाँ पहले गरम पानी से नहाने की व्यवस्था की गयी । 

·        इसी माध्यमिक स्कूल में पेंडसे के अलावा आंबेडकर नामक दूसरे एक ब्राह्मण अध्यापक थे। उनका भीम पर बहुत प्रेम था। उन दो ब्राह्मण अध्यापकों की वजह से भीम को ऐसा लगता था कि जैसे घर के बाहर सहानुभूति विहीन धधकते हुए रेगिस्तान में किंचित कहीं प्रेम की हरियाली भी है। बीच की छुट्टी में खेलते- कूदते , शरारत करते घर जाने को मिलता था, इसलिए भीम घर जाता था। एक दिन यह बात आंबेडकर-अध्यापक के ध्यान में आ गयी। उन्होंने बड़ी आत्मीयता से भीम को बुलाया और उस समय से वे उसकी अंजुली में ऊपर से सब्जी-रोटी रखने लगे। वह उनका नित्य नियम था। उस अपनेपन के झरने में सराबोर होकर भीम का अंग-अंग रोमांचित हो जाता था। प्यार से दी हुई उस सब्जी-रोटी का स्वाद उसे बहुत अच्छा लगता था। प्रौढ़ होने पर बाबासाहब को उस घटना की याद आते ही उनका गला भर आता था। मानवता और ममता से परिपूर्ण आंबेडकर गुरूजी का सारा जीवन ही निराला था।

·        ‘मुंबई के एल्फिन्स्टन हाईस्कूल में एक बार की बात है,पेंडसे नामक ब्राह्मण शिक्षक पढ़ा रहे थे। उन्होंने श्याम पट पर एक आकृति बनायी और उसके आधार पर सबसे प्रश्न पूछा। उत्तर देने के लिए केवल भीमराव ने ही हाथ ऊपर उठाया। उन्होंने भीमराव को बुलाया और उत्तर श्यामपट पर लिखने के लिए कहा। भीमराव श्याम पट की ओर जाने लगा, तब बाकी विद्यार्थियों ने काफी हल्ला मचाया।’

एक विद्यार्थी बोला, ‘सर, उसे श्याम पट को न छूने दें।‘शिक्षक ने पूछा :‘क्यों?’

‘सर, ये अस्पृश्य है।’ ‘हाँ, तो वह विद्यार्थी है न।’ ‘उस श्याम पट के पीछे हमारे भोजन के डिब्बे रखे हैं। उसके श्याम पट को छूने से वे हमारे खाने के काम के नहीं रह जायेंगे।’ब्राह्मण शिक्षकने विद्यार्थीयों को मक्कमता से कहा:‘तुम लोग अपने डिब्बे अलग रखो। यह श्याम पट पर लिखेगा।’पेंडसे शिक्षक का भीमराव पर असीम प्रेम था। भारतीय मजदूर सभा के जनक (मराठी साहित्यकार वा. मू. जोशी के बड़े भाई) ब्राह्मण नारायण मल्हावराय जोशी। (1902-1906) में मुंबई के एलफिन्स्टन हाईस्कूल में अंबेडकर के कक्षाचार्य (क्लास टीचर) थे । उन्होंने छात्र आंबेडकर को कक्षा की अंतिम पंक्ति से उठाकर प्रथम पंक्ति में बैठाया और उनसे गणित का सवाल ब्लैकबोर्ड पर हल करवाया ।

·        अस्पृश्यों के मानवीय, सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों का अहसास निर्माण होने और उसके लिए प्रबोधन, संगठन तथा आवश्यकता पड़ने पर संघर्ष करने की तैयारी होने के बावजूद प्रारम्भ के अनेक वर्षो तक बाबासाहब की भूमिका यही रही कि हम हिन्दू समाज के अविभाज्य अंग हैं; क्योंकि उनकी धारणा थी कि अस्पृश्यता का प्रश्न सम्पूर्ण हिन्दू समाज का प्रश्न है व उसके लिए उच्चवर्ण तथा अस्पृश्य दोनों को कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करना चाहिए। इसी कारण अपना संस्थागत जीवन प्रारम्भ करते समय 20 जुलाई, 1924 को उन्होंने जिस ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’की स्थापना की, उसकी रचना में तथाकथित उच्चवर्णीय समाज के लोगों को भी उचित स्थान दिया। सर चिमनलाल सीतलवाड़ इस संस्था के अध्यक्ष (जो जाति से ब्राह्मण) थे। मेयर निस्सिम, रुस्तमजी जिनवाला, जी. के. नरीमन, डाक्टर वि. पा. चौहान, रेंग्लर र. पु. पराज्जपे, वा. गं. खरे जैसे सामाजिक नेता सभा के उपाध्यक्ष थे।

·        बाबासाहब ने पीपुल्स एज्युकेशन सोसायटी की स्थापना कर सिद्धार्थ महाविद्यालय प्रारम्भ करने का निश्चय किया। उसके संस्थापक सदस्यों में एस. सी. जोशी, मो. वा. दोंदे, राजाराम भोले, दौलतराव जाधव, सी. के. बोले, हिरजीभाई पटेल, बैरिस्टर समर्थ तथा वी. जी. राव को रखा । जो कि अधिकांश सदस्य ब्राह्मण जाति के थे। उस समय उन्होंने अपने अनुयायियों को उच्चवर्णों के सहयोग की आवश्यकता के महत्त्व को समझाया। बाद में भी श्रम मंत्रालय को पुनर्गठित के साथ श्री एस. सी. जोशी को सौंपी। बाबासाहब के जीवन में श्री चित्रे का स्थान सुप्रसिद्ध रहा। उन्हें यह बताने में कभी संकोच नहीं हुआ कि उनके कई व्यक्तिगत मित्र ब्राह्मण हैं। 14 जनवरी, 1946 को शोलापुर में दिये अपने भाषण में डा. वि.वि. मुले का उल्लेख बड़े ही भावनापूर्ण शब्दों में करते हुए उन्होंने कहा –‘डा. मुले के सहकार्य के कारण ही 20 वर्ष पूर्व मैंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया।’

·        मिलिन्द महाविद्यालय के प्राध्यापक ठकार से उनकी नियुक्ति के समय बाबासाहब ने पूछा –‘इसके पूर्व आप क्या काम करते थे?’ ठकार ने बताया –‘ मैं नासिक के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक था।’यह पूछने पर कि फिर वह छोड़ा क्यों, ठकार ने बताया –‘संघ के नेतृत्व में हुए सत्याग्रह में भाग लेने के कारण मेरी नौकरी गयी।’यह सुनकर बाबासाहब ने ठकार की पीठ थपथपायी और कहा –‘शाबाश! तुम्हारा चुनाव कर मैंने ठीक ही किया।’मिलिन्द महाविद्यालय के प्राध्यापक ठकार ने एक बार उनसे पूछा –‘बाबासाहब! आप ब्राह्मणों के विरुद्ध क्यों हैं? बाबासाहब ने उत्तर दिया –‘My boy, had I been against Brahmins and Hindus, you would not have been here. मेरी संस्था के शिक्षक बहुधा ब्राह्मण ही हैं। मेरा विरोध ब्राह्मण जाति से नहीं है, ब्राह्मण्य से है ।’

·        जात-पाँत तोड़क मण्डल के संस्थापक भाई परमानन्द, गोकुलचन्द नारंग, जमनादास मेहता, डा. मुञ्जे, डा. खरे, समतानन्द गद्रे, ल. व. भोपटकर, भागोजी कीर, अप्पा कासार, स्वातन्त्रयवीर सावरकर व हिन्दू महासभा के कई अन्य नेताओं से उनके आत्मीय सम्बन्ध थे।

·        महाड सत्याग्रह के दूसरे पर्व की तैयारी हो ही रही थी कि अमरावती के कार्यकर्ताओं ने अम्बादेवी के मन्दिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह चलाया। उस निमित्त हुई परिषद् के लिए डॉ. अम्बेडकर को अध्यक्ष चुना गया। बाबासाहब अपने आन्दोलन के सहकारी देवराव नाईक, सी. ना. शिवतरकर, रा. दा. कांबली, दा.वि. प्रधान आदि नेताओं के साथ अमरावती पहुँचे। इन्द्रभुवन नाट्यगृह में परिषद प्रारम्भ हुई । बैरिस्टर तिडके, डा. पंजाबराव देशमुख, चौबल वकील, गवई एम. एल. सी., केशवराव देशमुख, डा. पट्टवर्द्धन जैसे नेता भी उपस्थित थे। प्रारम्भ में पंजाबराव देशमुख का भाषण हुआ। उसके पश्चात् बाबासाहब का विद्वत्तापूर्ण पर मुँहतोड भाषण हुआ।

·        महार का कोई लड़का मैट्रिक उत्तीर्ण हो – यह उस समय एक अभूतपूर्व घटना ही मानी जाती थी। इस उपलक्ष्य में एक समारोह आयोजित किया गया। उस समारोह का अध्यक्ष पद महाराष्ट्र के विख्यात कर्मठ समाज सुधारक सीताराम केशव बोले को दिया गया। उस सभा में बम्बई के विल्सन हाईस्कूल के अध्यापक और विख्यात विचारक, प्रसिद्ध, मशहूर ग्रंथकार तथा निष्ठावान समाजसुधारक गुरुवर कृष्णाजी अर्जुन केलुसकर भी उपस्थित थे। वह ब्राह्मण जाति के थे। कृष्णाजी केलुसकर मुंबई के चर्नी रोड के उद्यान में संध्या के समय किताबों का पठन करते रहते थे । बाबासाहब चर्नी रोड गार्डन (अब स.का.पाटील उद्यान) में जाकर पढ़ाई करते थे । विल्सन हाई स्कूल के ब्राह्मण प्रधानाध्यापक कृष्णाजी अर्जुन केळुस्कर उस बाग में हमेशा जाते थे । बाबा साहब वहां भी तल्‍लीनता से पढ़ते थे,  कृष्‍णाजी उनसे बहुत प्रभावित हुए। बाद में बाबा साहब ने बताया कि प्रधानाध्‍यापकजी से मिलना उनके लिए हर बार प्रेरणादायक रहता था। एक दिन नजदीक के बेंच पर उन्हें एक अत्यंत एकाग्रता से पढ़ रहा पैनीबुद्धिवाला लड़का दिखाई पड़ा। वह लड़का भीमराव था। कौतूहलवश उन्होंने भीमराव से जान-पहचान कर ली और उसे प्रोत्साहित किया। उन्हें भीमराव से लगाव हो गया। सहज ही भीमराव के सन्मान में आयोजित समारोह में उन्होंने दो शब्द कहे और उस समय अपना खुद का लिखा हुआ मराठी बुद्ध चरित्र उन्होंने भीमराव को उपहार के रूप में दिया।

·        भीमराव को बुद्ध का प्रथम परिचय कराया कृष्णाजीने उसी पुस्तक का पठन भविष्य में उनको बुद्ध की तरफ ले गया हो तो आश्चर्य नहीं…सभा समाप्त होने पर गुरुवर केलुसकर ने भीमराव के पिताजी रामजीपंत से भीमराव के भावी शिक्षा-प्रबंध संबंधी पूछताछ की। उस समय उस रामजी सकपालने कहा, ‘मेरी परिस्थिति कठिन है, यह सच है, फिर भी मैने भीम को उच्च शिक्षा देने का संकल्प किया है।’

·        भीमराव बम्बई के एल्फिन्स्टन महाविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। भीमराव की इन्टर आर्टस् की परीक्षा उत्तीर्ण होने तक रामजी सूबेदार ने भीमराव की शिक्षा का बोझ बड़ी मुश्किल से संभाला। शिक्षा का यह व्यय वे नहीं सँभाल सकते हैं – यह देखकर गुरुवर कृष्णाजी केलुसकर ने सर नारायण चंदावरकर की मध्यस्थता से बड़ौदा नरेश से उनके बम्बई आवास में भेंट की। ‘अस्पृश्यों के प्रोत्साहनार्थ सहायता देने की जो घोषणा बम्बई नगर भवन की सभा में बड़ौदा नरेश ने की थी, उसकी याद दिलाकर गुरुवर केलुसकर ने भीमराव को उनके सम्मुख खड़ा किया। महाराज ने जो प्रश्न पूछे उनके उत्तर भीमराव ने संतोषजनक दिये। अपनी सरकार की माहवार पच्चीस रुपए की छात्रवृत्ति उन्हें देना स्वीकार किया। बुद्ध चरित ग्रंथ भीमराव को उपहार में देकर केलुसकर ने भीमराव को समाज में फैली हुई ऊँच-नीचता के खिलाफ जागृत होने का अनजाने में आवाहन किया। उनकी आवश्यक मनोदशा तैयार की। उन्होंने भीमराव के ज्ञान संपादन के पथ पर अपनी सहानुभूति का प्रकाश फैला दिया। खुद के बुद्धि-वैभव में वृद्धि करने का उन्हें एक अमूल्य मौका प्रदान किया। गुरुवर केलुसकर के जीवन की यह एक बड़ी संस्मरणीय विशेष घटना थी।

केळुस्कर चाहते थे की बाबासाहब जैसे प्रतिभासंपन्न युवा बहुत पढ़ें और इसी कारण बाबासाहब को शिष्यवृत्ति मिले इसलिए वह स्वयं बड़ौदा आए । इसी कारण बाबासाहब को उच्च शिक्षा के लिए बड़ौदा महाराज से आर्थिक सहायता मिलना सम्भव हो सका । 

·        मैट्रिक से आगे अध्ययन के लिए बड़ौदा नरेश सयाजीराव की छात्रवृत्ति पाने हेतु मुंबई में बाबासाहब की महाराजा से मुलाकात करवानेवाले यांदे भी ब्राह्मण ही थे । गिरगाँव में उनका ‘निर्णयसागर’ नामक एक प्रेस था । बड़ौदा राज्य का संपूर्ण साहित्य-गजेट आदि वहीं छपता था । इसी कारण वह महाराजा गायकवाड़ के घनिष्ठ संपर्क में थे । दादा केलुस्कर (भंडारी जाति) उनके साथ गए थे । बाबासाहब की महाराजा से जान-पहचान यांदे ने ही करवाई थी । विदेश में उच्च अध्ययन हेतु छात्रवृत्ति एवं आर्थिक सहायता के लिए दिनांक 4.6.1913 को बड़ौदा राज्य एवं भीमराव आंबेडकर के मध्य अनुबंध-पत्र दाखिल किया गया, जिसके लेखक एवं आंबेडकर की तरफ से जिम्मेदारी लेनेवाले त्रिभुवन जे. व्यास एवं ए. जी. जोशी ब्राह्मण ही थे।

·        डॉ. बाबासाहब आंबेडकरने अस्पृश्य वर्ग की सामाजिक और राजनीतिक समस्याएँ सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए एक मध्यवर्ती संस्था स्थापित की जाए, इस संबंध में विचार-विमर्श करने के लिए आंबेडकर ने 9 मार्च, 1924 को सायंकाल चार बजे दामोदर ठाकरसी सभागृह, परेल, बम्बई में एक सभा बुलायी। अस्पृश्य समाज के सभी नये-पुराने कार्यकर्ता और समाज सेवक इक्टठे हुए। उस सभा के प्रस्तावानुसार 20 जुलाई, 1924 को ‘बहिष्कृत हितकारणी सभा’स्थापित की गयी। उस संस्था को चलाने वाले नेताओं की इच्छा थी बहिष्कृत हितकारिणी सभा, न्यायमूर्ति रानडे की सार्वजनिक सभा के स्तर पर कार्यान्वित हो। उस सभा के उदेश्य ये थे :अ. छात्रावास अथवा अन्य साधनों से बहिष्कृत समाज में शिक्षा का प्रसार करना।बहिष्कृत समाज में उच्च संस्कृति की वृद्धि करने के लिए विभिन्न स्थलों पर पुस्तकालय, शैक्षिक कक्ष या स्वाध्याय केंद्र खोलना। हिष्कृत समाज की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए औद्योगिक और कृषि स्कूल चलाना ।

इस बहिष्कृत हितकारिणी सभा के अध्यक्ष सर चिमनलाल हरिलाल सेतलवाड़ जो जाति के ब्राह्मण थे और सभी पदाधिकारी उच्च वर्ग के थे। मेयर निस्सीम जे. पी., रुस्तमजी जिनवाला सोलिसिटर, जी. के. नरीमन, डॉ. वि. पा. चौहान, डॉ. र. पु. परांजपे, बा. गं. खेर, सोलिसिटर उपाध्यक्ष थे। कार्यकारिणी समिति के अध्यक्ष स्वयं बाबासाहब आंबेडकर, कार्यवाहक – सीताराम नामदेव शिवतरकर, कोषाध्यक्ष – निवृत तुलसीदास जाधव थे। संस्था में सवर्ण हिन्दुओं को सम्मिलित करने के कारण को स्पष्ट करते हुए पहली वार्षिक रिपोर्ट में लिखा गया है –‘जिस वर्ग के सुधार के लिए संस्थाएँ स्थापित करनी है, उस वर्ग के या उसी परिस्थिति से परेशान हुए लोगों के कार्यकर्ताओं के संस्था में आये बिना संस्था के ध्येय और उद्देश्य सफल नहीं हो सकते। यह स्वीकृत होने पर भी जिन्होंने यह संस्था स्थापित की है उन्हें पक्का मालूम है कि उच्च वर्ग के धनिक और सहानुभूति रखने वाले लोगों की सहायता के अभाव में अस्पृश्य वर्ग की उन्नति के भव्य कार्यक्रम की सार्थकता होना कदापि संभव नहीं। वैसा न करने का अर्थ होगा कि हमने ही स्वजनोद्धार के महान् कार्य का नुकसान किया है । इसलिए सिद्ध और साधक का मिलाप होकर इस राष्ट्रकार्य को सबकी मदद प्राप्त हो, वही उद्देश्य इस संस्था की स्थापना की नींव में है।’

·        सिड़नहैम कॉलेज में प्राचार्य पद की जगह रिक्त हुई थी। उस समय रघुनाथ पुरुषोत्तम परांजपे शिक्षामंत्री थे। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जैसे सर्वोच्च उपाधियाँ प्राप्त अनुभवी प्राध्यापक को वह पद् मिले इस संबंध में गुरुवर केलुसकर ने शिक्षामंत्री परांजपे से महाबलेश्वर में भेंट की, लेकिन इस संबंध में कुछ भी नहीं कर सके। परांजपे एल्फिन्स्टन कॉलेज में आंबेडकर को प्राध्यापक का पद दे सकेंगे, ऐसा उन्होंने बताया। जून 1925 से मार्च 1928 तक बाटलीबॉय एकाउटेंसी ट्रेनिंग इन्स्टिट्यूट में अध्यापक का काम करते रहे।

·        महाड़ के चवदार तालाब में पानी पीने के अधिकार को लेकर सत्याग्रह चल रहा था, तब ब्राह्मणेत्तर-दल के नेताओं, जेधे-जवलकर ने डॉ. बाबासाहब आंबेडकर को बताया कि महाड़् सत्याग्रह को ब्राह्मणेत्तर दल का पूरा समर्थन है। जेधे-जवलकरने इस संदर्भ में कुछ शर्ते रखी थी कि इस सत्याग्रह में ब्राह्मण जाति के कार्यकर्ताओं को सम्मिलित नहीं किया जाए। सत्याग्रह पूरी तरह से अहिंसक हो और महाड़ में बड़ी परिषद आयोजित करने के बाद में ही सत्याग्रह का आरंभ हो। ब्राह्मणों के सत्याग्रह में सम्मिलित न करने की जेधे-जवलकर की शर्त को पूरी तरह नकारते हुए डॉ. आंबेडकर ने स्पष्ट बताया कि, ‘हमें यह शर्त मंजूर नहीं कि अस्पृश्योद्धार के आंदोलन से ब्राह्मण कार्यकर्ताओं को बाहर निकाला जाए।’उन्होंने बताया कि, ‘हम यह मानते है कि, ब्राह्मण लोग हमारे दुश्मन न होकर ब्राह्मणग्रस्त लोग हमारे दुश्मन है। ब्राह्मणरहित ब्राह्मण् हमें नज़दीक का लगता है। ब्राह्मणग्रस्त ब्राह्मणेतर हमें दूर का लगता है। हमारे सत्याग्रह में भाग लेने के लिए किसी भी व्यक्ति को पूरी स्वतंत्रता है। चाहे वह व्यक्ति किसी भी जाति का क्यों न हो। यह झगड़ा तथ्य के लिए है, किसी एक व्यक्ति या जाति के साथ नहीं। हम उनके आभारी रहेंगे जो हमारे पवित्र कार्य में हमें सहायता करने के लिए तत्त्वनिष्ठा से आगे बढ़ेंगे।’

·        महाड़ सत्याग्रह के कारण चवदार ताल को ब्राह्मण अशुद्ध हुआ मानते, उस समय महाड के ही प्रमुख ब्राह्मण पी. पी. (बापूराव) जोशी बाबासाहब के प्रबल समर्थक थे । उच्चवर्णीय हिन्दू तालाब को शुद्ध करना चाह रहे थे, परन्तु उसके पूर्व ही बापूराव जोशी ने ताल में स्नान कर एक प्रकार से ब्राह्मण के कृत्य को चुनौती दी । 

·        महाड़ सत्याग्रह के समय  में ब्राह्मण गंगाधर नीलकंठ सहस्रबुद्धे ने मनुस्मृति दहन का प्रस्ताव रखा और दिनांक 25.12.1927 को सायं 7 से 9 बजे तक दलित साधुओं के साथ मनुस्मृति की होली जलाई।

·         महाड़ सत्याग्रह (कोलाबा जिला बहिष्कृत परिषद् दिनांक 19, 20 मार्च, 1927) में कार्यक्रम के अंत में डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में जुलूस निकालकर ‘चवदार’ तालाब में प्रवेश करके पानी पीने का प्रस्ताव रखने वाले आनंतराव विनायक चित्रे (1894-1959) कायस्थ थे, जिन्होंने आगे चलकर आंबेडकर के ‘जनता’ साप्ताहिक के संपादक के रूप में वर्षो तक अपनी सेवाएँ दीं । चित्रजी ने 1928 में इंदौर में दलित विद्यार्थियों के लिए छात्रावास भी खोला । 

·       सार्वजनिक स्थानों पर दलितों के प्रवेश का प्रस्ताव प्रस्तुत करनेवाले सीताराम केशव बोले भंडारी भी ब्राह्मण थे ।  

·        महाड़ चवदार तालाब सत्याग्रह 20 मार्च, 1927 को सफल हुआ। इससे आहत रुढ़िवादी सवर्णों ने अश्पृश्यों पर हमला कर दिया । कई लोग घायल हुए। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने फौजदारी शिकायत दर्ज करवाई। 21 जून 1927 को न्यायमूर्ति हुड साहब ने अपराधियों को सजा सुनाई। इस निर्णय से उत्साहित होकर डॉ. आंबेडकर ने अपने पत्र ‘बहिष्कृत भारत’ में दिनांक 25, 26 दिसंबर के लिए अगले कार्यक्रम की घोषणा कर दी, लेकिन रूढ़िवादी सवर्णो  ने 12 दिसम्बर 1927 को महाड़ सेशन जज के कोर्ट में मुकदमा नं. 405/1927 दाखिल करके एक पक्षीय स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया । 

·         इस बीच दिनांक 9-10 दिसंबर, 1927 को ‘बृहद महाराष्ट्र ब्राह्मण परिषद’ की एक बैठक वेदशास्त्र पारंगत नारायण शास्त्री मारेठी  के अध्यक्षता में अकोला में संपन्न हुई, जिसमें सैंकड़ों वेदशास्त्र पारंगत ब्राह्मणों ने भाग लिया । इस ब्राह्मण परिषद् ने सर्वसंमति से 10 प्रस्ताव पारित करके सामाजिक समता की जोरदार वकालत की । इसके अतिरिक्त प्रस्ताव 13 पारित करके यह घोषणा की, ‘अस्पृश्यता शास्त्र आधारित नहीं है और मानव मात्र को वेद अध्ययन का अधिकार है, साथ ही पाठशाला, धर्मशाला, मंदिर, बावडी, कुँआ, तालाब आदि स्थानों पर सभी को प्रवेश करने का अधिकार है । किसी को अस्पृश्य नहीं मानना चाहिए । 

·         इस परिषद के मुख्य संचालकों में पांडुरंग भास्कर शास्त्री पालेय ब्राह्मण जाति के थे । डॉ. बाबासाहब आंबेडकर को जो अपेक्षाएँ थीं, वे इस ब्राह्मण परिषद् ने प्रस्ताव द्वारा पारित की । महाड़ के रूढ़िवादी सवर्णों के मुकदमे के प्रत्युत्तर में डॉ. आंबेडकर ने पांडुरंग भास्कर शास्त्री पालये द्वारा लिखित पुस्तक में से उद्धृत श्लोकों को कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया । डॉ बाबासाहब ने इन श्लोकों द्वारा  कोर्ट में  स्पष्ट किया गया था कि अस्पृश्य के स्पर्श से पानी या कोई भी वस्तु अपवित्र नहीं हो जाती । शास्त्रीजी (पालेय) ने स्मृतियों के आधार पर सभी साक्ष्य जमा किए थे । अंत में निचली अदालत ने मुकदमा खारिज कर दिया । 

·        महाड़ सत्याग्रह केस (20 मार्च, 1927) दीवानी मुकदमा 405/1927 में शंकराचार्य डॉ. कृतकोटि ने डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के पक्ष में गवाही दी । इस गवाही को नोट करनेवाले कोर्ट कमिश्नर भाई साहब मेहता भी ब्राह्मण थे । इस मुकदमे का न्याय निर्णय डॉ. आंबेडकर के पक्ष में हुआ और यह निर्णय देनेवाले न्यायमूर्ति वि.वि. पंडित भी ब्राह्मण थे । 10 वर्ष पश्चात् 17 मार्च 1937 को हाईकोर्ट ने डॉ. आंबेडकर के पक्ष में अपना निर्णय दिया था।

·        – बाबासाहब ने अस्पृश्य महिलाओं को महाड सत्याग्रह के समय कहा था कि आपको अच्छी तरह स्वच्छ कपड़े पहनने चाहिए’।  महाराष्ट्र में अस्पृश्य महिलाएँ- पुरुषों की धोती की तरह साड़ी बांधकर पहनती थी। बाबासाहब को यह पसंद नहीं था। डो. अम्बेडकर ने अपने बाह्मण मित्रों की पत्नियों को बुलाकर एक संमेलन में अच्छी तरह कपड़े कैसे पहने जायें उसका प्रशिक्षण दिलाया था

 

·        लोकमान्य तिलक के बेटे श्रीधरपंत तिलक की आंबेडकर के साथ अभिन्न मित्रता थी। वे डॉ. आंबेडकर के स्नेही और चहेते थे। उनके सामाजिक मत बहुत स्पष्ट थे। उनका मत था कि, हिन्दू संगठन का अर्थ है चातुर्वर्ण्य का विध्वंस करना। उन्होंने 1927 के गणपति महोत्सव में ‘केसरी’के ट्रस्टियों का विरोध न मानकर अस्पृश्य समाज के युवा कार्यकर्ता राजभोज के श्रीकृष्ण मेले के कार्यक्रम गायकवाड़-बाड़े में आयोजित किये। यह अश्पृश्य मेला जब बाड़े में प्रवेश कर रहा था, तब बहुत धक्का-मुक्की हुई। श्रीधरपंत द्वारा दिखाए गए धैर्य और अग्रगामी मतों के बारे में अभिमान रखनेवाले पुणे के अस्पृश्यों ने एक सभा बुलाकर उनका अभिनंदन किया।आंबेडकर के तेजस्वी विचार, कार्य तथा व्यक्तित्व से परिचित होकर युवा पीढ़ी समाज की सेवा करे और संगठन करे, इस उद्देश्य से अस्पृश्य समाज के कार्यकर्ताओं ने पुणे में अहल्याश्रम में एक विद्यार्थी-परिषद् का आयोजन किया। अस्पृश्य समाज के बुद्धिमान और कर्तृत्वशील सुशिक्षितों को आंबेडकर के संगठन में लाकर उन्हें कार्योन्मुख करना परिषद् का मुख्य उद्देश्य था। विद्यार्थी-परिषद् के सामने भाषण करते हुए आंबेडकर ने कहा, ‘विद्यार्थी अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी का निर्वाह कैसे करते हैं, इस पर ही समाज का भवितष्य निर्भर करता है। बहिष्कृत लोगों की सुशिक्षित स्त्रियाँ अपना शील और कर्तव्य संभालकर समाज की उन्नति के लिए हाथ बटाएँ।’इस सभा में श्रीधरपंत तिलक ने एक स्फूर्तिदायक भाषण किया।

·        अपने सुधारवादी विचार कृति में लाने का प्रयास करनेवाले और बड़े दिल वाले श्रीधर पंतने कुछ महीनों बाद अपना अंत खुद कर लिया। मृत्यु का आलिंगन करने से कुछ घण्टे पहले श्रीधरपंत ने डॉ. आंबेडकर को पत्र भेज़कर बताया कि, ‘यह पत्र आपके हाथ में पड़ने से पहले ही शायद मैंने मृत्युलोक की यात्रा को राम-राम किया है, ऐसा समाचार आपके कान में पड़ेगा,’महाराष्ट्र की युवा पीढ़ी अगर ठान ले तो अस्पृश्यता निर्मूलन की समस्या केवल पाँच वर्षों में हल होगी, ऐसी आशा प्रकट करते हुए वे आगे लिखते है, ‘मेरे बहिष्कृत भाइयों की शिकायतें प्रत्यक्ष भगवान श्रीकृष्ण की सेवा में अर्पित करने के लिए मैं आगे जा रहा हूँ।’उन्होंने यह आशा व्यक्त की कि, डॉ. आंबेडकरने जो कार्य हाथ में लिया है उसमें परमात्मा उन्हें कामयाब करेगा, अश्रुसिक्त आँखों से डॉ. आंबेडकर ने यह उद्गार निकाले कि, ‘हमारे मित्र को अपने जीवन का इस तरह दुःखद अंत नहीं करना चाहिए था।’उन्हें इस बात का अफसोस हो रहा था कि हमारे आंदोलन का एक निष्ठावान कार्यकर्ता और एक बड़ा आधार टूट गया।

·        सितम्बर 1927 से आंबेडकर द्वारा अपने दोस्तों के साथ चलाये ‘समाज समता संघ’के कार्य संबंधी वाद की बहुत मिट्टी पलीद हो गयी थी। इस संस्था के अध्यक्ष स्वयं बाबासाहब थे। कार्यकारिणी समिति के सदस्यों और पदाधिकारियों में दे. वि. नाईक, डॉ. भाईदरकर, भा. वि. प्रधान, द. वि. प्रधान, रा. दा. कवली, एस. एस. गुप्ते आदि लोग प्रमुख थे। यह संघ का ध्येय था:सब लोग समान होते हैं । मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक साधनों और अवसरों पर प्रत्येक मनुष्य का समान अधिकार है। यह समानता का अधिकार पवित्र, परादेय और अबाधित है’।

·        उनका यह अटल विश्वास था कि सामाजिक समता का तत्व समाज की स्थिरता के लिए कोनशिला की तरह महत्त्वपूर्ण है। नीति की मजबूत नींव पर समाज का निर्माण करना है, तो समाज के प्रत्येक घटक को धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में समता का तत्व जारी करना जरूरी है। ‘समाज समता संघ’ के अध्यक्ष और नेता के रूप में डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मण आचार्य प्रहलाद केशव अत्रे के विवाह का ‘बहिष्कृत भारत’में लेख लिखकर अभिनंदन किया।बाबासाहबने ‘बहिष्कृत भारत’ में लिखा कि ‘अंतरजातीय विवाह को आदर्श मानना  चाहिए,समाज से सामाजिक विषमता को नष्ट करने के लिए ऐसे विवाह को प्रोत्साहन मिलना चाहिए’। 

·        समता संघ की पत्रिका ‘समता’ के संपादक देवराम विष्णु नाइक गोवर्धन ब्राह्मण थे, जो आगे चलकर ‘जनता’ साप्ताहिक के संपादक बने । नाइक बाबासाहब के विश्वास पात्र साथी थे । 

·        रत्नागिरी के जिला और सत्र न्यायालय में चल रहे हत्या के एक मुकदमें के निमित्त आंबेडकर को वहाँ सितम्बर 1929 में जाना पड़ा। इस मौके का लाभ उठाते हुए वीर सावरकर ने रत्नागिरि के विठ्ठल मंदिर में आंबेडकर भाषण करें, इसलिए नागरिकों के सैंकड़ों हस्ताक्षरों सहित एक आमंत्रण उन्हें भेज दिया। सावरकर के अनुयायियों ने इसी विठ्ठल मंदिर में सामाजिक सुधार का सफलता के साथ संघर्ष किया था। इसलिए उस मंदिर को सामाजिक क्रांति संघर्ष के एक बड़े केंद्र के रूप में विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ था। प्रतिक्रियावादी लोग सभाबंदी  आदेश प्राप्त करने के लिए नगर दण्डाधिकारी के पास पहुँचे। सारे शहर में इस प्रश्न पर चर्चा शुरू हुई, तथापि बीच में आंबेडकर को बम्बई के किसी अत्यंत जरूरी काम के लिए तार प्राप्त होने से भारत-भू के दो महान क्रांतिवीरों के एक ही व्यासपीठ पर अमूल्य भाषण सुनने के लिए सहज ही प्राप्त हुए मौके से रत्नागिरि की जनता वंचित हुई।

·        शिवराम जानबा कांबले, पां. ना. राजभोज, श्री स. थोरात, लांडगे, विनायकराव भुरकेटे आदि पुणे के दलित वर्ग के नेताओं ने पुणे के वा. वि. साठे, देशदास रानडे, ग. ना. कानिटकर, केशवराव जेधे और न. वि. गाडगिल इन स्पृश्य नेताओं के साथ विचार विमर्श कर पुणे के प्रसिद्ध पर्वती के मंदिर के देवता की पूजा-अर्चना करने का अस्पृश्यों का अधिकार प्रस्थापित करने के लिए 13 अक्तूबर 1929 को सत्याग्रह शुरू किया। मंदिर प्रवेश का नेतृत्व करनेवाले सभी उच्चवजाय थे। मंदिर-प्रवेश आन्दोलन के विरोधियों ने भयप्रद गर्जना कर सत्याग्रहियों पर पथराव किया। इस पत्थरबाजी से गाडगिल, रानडे और कुछ आर्यसमाजी कार्यकर्ताओं को मामूली जख्म हुए। राजभोज को तो भयंकर चोंट लगने से अस्पताल में लाना पड़ा। लश्करी पलटन आ गयी। लोग तितर-बितर हो गये। बड़ी मात्रा में होने वाला रक्तपात टल गया। इस सभा में प्रबोधनकार ठाकरे, देवराव नाईक, शिवतरकर, प्रधान, खांड़के, कदली, कद्रेकर, इत्यादि नेता और कार्यकर्ता उपस्थित थे। पुणे का मंदिर-प्रवेश सत्याग्रह उस तरह का पहला ही सत्याग्रह नहीं था। सावरकर ने रत्नागिरि के विठ्ठल मंदिर में अस्पृश्य हिन्दुओं को प्रवेश दिलाने के उद्देश्य से इसी तरह का आन्दोलन शुरू किया था। कारवार का विठ्ठल मंदिर-प्रवेश, अमरावती का अंबादेवी मंदिर-प्रवेश, खुलना का कपिलमुनि काली मंदिर-प्रवेश इत्यादि अनेक जगह संघर्ष जारी थे।

·        2 मार्च 1930 को आंबेडकर ने दलित हिन्दुओं की सामाजिक स्वतंत्रता के लिए नासिक में मंदिर प्रवेश का संघर्ष शुरू किया। समाज समता संघ के नेता देवराज नाईक, द. वि. प्रधान, कवली, सहस्त्रबुद्धे भी नासिक गए। बालासाहब खेर भी सत्याग्रही और सनातनी हिन्दुओं में कुछ समझौता करने की दृष्टि से नासिक गए थे।

·        महाबोधि सोसायटी के अध्यक्ष (जो बौद्ध नहीं थे) एक बंगाली ब्राह्मण थे। वे एक कालिक सामयिक प्रकाशित किया करते थे। संसार भरके बौद्धोंमें उनका पाठक–वर्ग था। लेकिन उस संस्थाके अध्यक्ष ब्राह्मण होने के कारण बाबासाहब उस सामयिक में लेख देने के लिए उत्‍सुक नहीं थे, तथापि अधिक से अधिक लोगों को बुद्ध के बारे में अपने विचार मालूम हों, इस हेतु से उन्होंने 6500 शब्दों का एक लेख उस सामयिक को दिया । वह प्रसिद्ध लेख था ‘दि बुद्ध एण्ड दि फ्यूचर आफ हिज रिलिजन’ (बुद्ध आणि त्याचा धर्माचे भवितव्य) । सोसायटी के अधिकृत मुखपत्र ‘महाबोधि’ के अप्रैल-मई 1950 के विशेषांक में यह लेख प्रकाशित हुआ । 

हिन्दू कोड बिल के मार्गदर्शक का केस करते समय बाबासाहब एक विचित्र स्थिति में फँस गये थे । उस समय उनका साथ देनेवाला कोई नहीं था । भारत के कायस्थ राष्ट्रपति ने इस बिल का   विरोध किया । ऐसे समय दो ब्राह्मण सदस्य हृदयनाथ कुँजरू, न. वि. गाडगिल ने ही उस बिल में समर्थन में लोकसभा में जोरदार भाषण दिये थे । यही गाडगिल अस्पृश्यों के साथ पुणे के एक मन्दिर में जबरन् प्रवेश करने के प्रयास में गम्भीर रूप से घायल हो गये थे ।  

नियम है कि उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश को विधि मण्डल में कार्यवाही के लिए लम्बित बिल का भाष्य नहीं करना चाहिए । इस नियम की अवहेलना कर न्यायमूर्ति प्र. बा. गजेन्द्र गडकर (मुम्बई उच्च न्यायालय) ने हिन्दू कोड बिल के समर्थन में भाषण दिये थे । पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी द्वारा स्थापित सिद्धार्थ महाविद्यालय का पहला प्राचार्य बनने का निवेदन बाबासाहब ने प्र. बा. गजेन्द्र गडकर के बड़े भाई अश्वत्थाचार्य बाळाचार्य गजेन्द्र गडकर से किया । डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा स्थापित पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी से संचालित सिद्धार्थ कॉलेज के प्रथम आचार्य भी बाबासाहब ने प्र. बा. गजेन्द्र गडकर के बड़े भाई अश्वत्थाचार्य बाळाचार्य गजेन्द्र गडकर थे।  डॉ. बाबासाहब उनकी प्रतिभा और विद्वता से सुपरिचित  थे. इसीलिए अनेक लोगों के विरोध के बावजूद जात-पात देखे बिना कॉलेज के प्रथम आचार्य के रूप में  ब्राह्मणाचार्य गजेंद्र गड़कर की नियुक्ति की। उन्होंने मुम्बई के एलफिंस्टन महाविद्यालय से समयपूर्व सेवानिवृत्ति लेकर बाबासाहब के निवेदन को स्वीकार किया । बाबासाहब व. प्रा. गजेन्द्रगडकर महाविद्यालय में पढ़ते समय सहपाठी थे । दोनों 1912  में बी.ए. की परीक्षा में एक साथ उत्तीर्ण हुए थे ।  (The Radical Humanist, August 2003; न्या. आर. ए. जहाँगीरदार मुम्बई उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश थे । वे कुछ समय तक ‘Radical Humanist’ पत्रिका के सम्पादक थे) डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा स्थापित सिद्धार्थ कॉलेज   और मिलिंद कॉलेज   में ज्यादातर प्रोफ़ेसर ब्राह्मण जाति के ही थे। 

·        1945 में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर को सर्वप्रथम सम्मान पत्र से सम्मानित करनेवाले शोलापुर म्युनिसिपल के अध्यक्ष डॉ. वी. वी. मूले ब्राह्मण थे । सम्मान-पत्र के प्रत्युत्तर में डॉ. आंबेडकर ने कहा कि आज से 20 वर्ष पूर्व डॉ. वी. वी. मूले के सहयोग से ही समाज सेवा के कार्य में सक्रियता से जुड़ा हूँ । 

·        कमलकांत चित्रके भानजे मनोहर भीखाजी चिटनिस (1907-1983) जो मिलिंद कॉलेज, औरंगाबाद के प्रथम प्रिंसिपल एवं बाबासाहब के अत्यंत विश्वसनीय थे, वे भी ब्राह्मण थे।

·        1948 में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने शारदा कृष्णा राव कबीर नामक सारस्वत ब्राह्मण महिला के साथ पुनर्विवाह किया । महाराष्ट्रीय परंपरा के अनुसार विवाह पश्चात् डॉ. आंबेडकर ने उनका सविता नामकरण किया ।

बाबासाहब ने पुनर्विवाह के अवसर पर दिल्ली में विवाह रजिस्ट्रार के समक्ष डॉ. शारदा कबीर (वधू) के पक्ष में हस्ताक्षर करनेवाले डॉ. शारदा के भाई वसंत कबीर एवं कमलकांत चित्रे ब्राह्मण थे । 

·        ‘स्वतंत्र मजदूर संघ’ के महामंत्री बैरिस्टर समर्थ कायस्थ थे । वकालत के व्यवसाय में बाबासाहब उन्हें अपने साथ रखते थे । वह ‘म्युनिसिपल कामदार संघ’ के उपाध्यक्ष भी थे । 

स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में डॉ. आंबेडकर को सम्मिलित करने के लिए आग्रह करनेवाले राजगोपालाचार्य (रामजी) भी ब्राह्मण थे । 

·        डॉ. आंबेडकरने दिनांक 1.9.1957 को राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हाथों मिलिंग महाविद्यालय औरंगाबाद का शिलान्यास करवाया । डॉ. राजेंद्र प्रसाद कायस्थ थे । 

·        बाबासाहब डॉ. आंबेडकरने 1954 में भारतीय बौद्ध महासभा, नामक संस्था का रजिस्ट्रेशन कराया । इस बौद्ध संस्था में एक ट्रस्टी के रूप में बालकृष्ण राव कबीर (डॉ. शारदा कबीर के भाई एवं बाबासाहब के साले), को लिया गया जो कि सारस्वत ब्राह्मण थे। भारतीय बौद्ध महासभा का प्रथम नाम भारतीय बौद्ध जनसंघ (1951) था। तत्पश्चात् भारतीय बौद्ध जनसमिति (1953) और अंत में भारतीय बौद्ध महासभा रखा गया।  पूज्य बोधिसत्व बाबासाहब डॉ. आंबेडकर तथागत बुद्ध की शरण में गए ‘…बुद्धं शरणं गच्छामि…।’ तथागत बुद्ध पूर्व में सिद्धार्थ थे, जिनकी प्रारंभिक शिक्षा आठ ब्राह्मणों कोंडम्य, राम, ध्वज, लक्ष्मण, सुयां, सुदत्र, भोज द्वारा संपन्न हुई। भगवान बुद्ध के प्रथम पाँच शिष्य पंचवर्गीय भिक्षु – कौंडिन्य, वम्प, महानाम, अश्वजित एवं भद्दीय भी ब्राह्मण ही थे । महाकारुणिक बुद्ध के भिक्षु संघ में 75 प्रतिशत ब्राह्मण थे। उनके प्रमुख शिष्य धम्म सेनापति सारिपुत्र (बुद्ध का दाहिना हाथ), महामोगल्लायन (बायाँ हाथ), महाकाश्मय (बायाँ कान) भी ब्राह्मण ही थे। 

·        बौद्ध धर्मका विदेशों में प्रचार करने वाले प्रमुख रूप से ब्राह्मण ही थे । अंत में भगवान बुद्ध की पवित्र अस्थियों के लिए जब आपस में कलह हुई, तब उसका समाधान करने वाला शिक्षक द्रोण ब्राह्मण ही था । 

·        14 अक्टूबर, 1954 को विजया दशमी के दिन नागपुर में बाबासाहब आंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा स्वीकार करने वाले एडवोकेट अनंत रामचंद्र कुलकर्णी (मंत्री, बौद्ध समिति) और नागपुर सेशन जज न्यायमूर्ति भवानी शंकर नियोगी भी ब्राह्मण थे । कुलकर्णी 1940 से नागपुर में बौद्ध धर्म का प्रचार कर रहे थे । मध्यप्रदेश सरकार द्वारा गणित नियोगी कमीशन रिपोर्ट में इस बौद्ध कार्यकर्ता ने ईसाई धर्मांतरण के विरोध की सिफारिश की थी । 

यह सब वृत्तांत प्रमाणित करती है कि शिक्षा, समाजसेवा व राजकार्यों तथा संघर्ष हर मौके पर ब्राह्मणों ने डॉ अंबेडकर का पूरा साथ दिया, अब इसे हम बाबा साहब एवं ब्राह्मणों के बीच अंर्तसंबंध को महज संयोग. कहें अथवा दैवीय इच्‍छा किंतु भारत का सामाजिक व राजनीतिक इतिहास ऐसी सैकडों घटनाओं का गवाह है।

मगर,  डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर के  तथाकथित अनुयायियों ने डॉ. सविता (माई साहब) के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया, इसके बारे में रक्षित सोनवणे का वृत्तान्त पढ़कर अत्यन्त दुःख हुआ (इण्डियन एक्सप्रेस, शुक्रवार, 30 मई, 2003) । बाबासाहब की ब्राह्मण पत्नी ने बाबासाहब के जीवन के अन्तिम समय व अवस्वस्थता के काल में जिस निष्ठा से उन्हें सँभाला, उसकी ओर सम्पूर्ण दुर्लक्ष्य हुआ । उससे भी बुरी बात यह है कि उन्होंने जिस प्रकार से बाबासाहब की सेवा-शुश्रुषा व चिन्ता की थी, उसके बारे में बाबासाहब द्वारा की गयी प्रशंसा को पोंछने का प्रयत्न उनके अनुयायियों ने किया । 

बाबासाहब की मृत्यु के बाद जब उनका ‘दि बुद्धा ऐण्ड हिज धम्म’ प्रकाशित हुआ, तब बाबासाहब द्वारा लिखी प्रस्तावना के बिना ही उसे प्रकाशित किया गया । 15 मार्च, 1656 को लिखी प्रस्तावना में उन्होंने अपनी पत्नी  के पश्चात् उनकी विधवा पत्नी उनके अनुयायों के लिए ‘अनचाहा मेहमान’ बन गयी और प्रकाशक ने उस प्रस्तावना व उसके साथ ही बाबासाहब द्वारा अपनी पत्नी के बारे में व्यक्त कोमल अभिव्यक्ति को भी दबा कर रखा । 

पंजाबी बौद्ध साहित्यकार भगवानदास ने 1980 में प्रकाशित अपने ग्रन्थ ‘रेअर प्रिफेसेस रिटेन बॉय डॉ. अम्बेडकर’ (डॉ. आंबेडकरांनी लिहिलेल्या दुर्मिळ प्रस्तावना) में उस प्रस्तावना का समावेश किया । तब ये सारी बातें ज्ञात हुई । प्रारम्भिक काल के बाबासाहब के धार्मिक शोध, उनके ग्रन्थ का मूलस्रोत और जिस परिस्थिति में वह ग्रन्थ लिखा, इसका निवेदन बाबासाहब ने इस प्रस्तावना में किया है । श्री आर. आर. भोळे (पीपुल्स एज्यूकेशन सोसायटी के तत्कालीन अध्यक्ष) ने 1957में पहली बार प्रकाशित हुए ‘दि बुद्धा ऐण्ड हिज धम्म’ की अपनी प्रस्तावना (16 नवम्बर, 1957) में इस मुद्दे का समावेश किया था, परन्तु बाबासाहब द्वारा अपनी पत्नी सविता के बारे में लिखी बातों को हटा दिया था । वास्तव में तो बाबासाहब द्वारा लिखी प्रस्तावना का समावेश उनके स्वयं के ग्रन्थ में न करना, उनकी स्मृति का अपमान था । बाबासाहब के निवेदन का सारांश, उनके द्वारा लिखी मूल प्रस्तावना का पर्याय कैसे हो सकता है? उसके बाद की आवृत्ति (1974) में भी न्यायमूर्ति आर. आर. भोळे (वे उस समय मुम्बई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति थे) की लिखी प्रस्तावना में भी माई अम्बेडकर के बारे में एक भी शब्द नहीं था । (आधार : ‘अम्बेडकर ऐण्ड बुद्धिज्म’ – संघरक्षिता :  विंधोर्स पब्लिकेशन 1986). 

अनुयायियों के ब्राह्मण-विरोध की यह वृत्ति बाबासाहब के विचारों से अलग है ।

  

 

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